विक्रम पंडित शुभांकर डी के साथ अपने बरसो पुराने कॉलेज टाइम के एक दोस्त की बहन की शादी में गोरखपुर आए थे। रात में सब कुछ ठीक था। चारों तरफ खुशियां ही खुशियां थी। उन दोनों ने भी खूब एन्जॉय किया। पर अगली सुबह दोस्त गायब! ढूंढा तो घर से एक डेढ़ किलोमीटर दूर जंगल में स्थित खंडहर में उसकी लाश मिली। कातिल ने बड़ी बेरहमी से कत्ल किया था। उसके हाथ पैर तक तोड़ डाले थे। सर पर इतने वार किए थे कि सर के आस पास ढेर सारा खून जमा था। ऐसा लगता था कि कातिल ने चैलेंज किया हो। वह चाहता तो लाश जला सकता था कहीं छुपा सकता था पर उसने ऐसा बिल्कुल नहीं किया था। अब विक्रम पंडित के कंधों पर अपने दोस्त के कातिल को पकड़ कर सजा दिलाने की भारी जिम्मेदारी आन पड़ी थी। ऐसी सिचुएशन में वह भाग नहीं सकता था क्योंकि उसका उसूल था जंग के मैदान में दुश्मन को और बुरे वक्त में दोस्त को कभी पीठ नहीं दिखाता। अंजाम चाहे कुछ भी हो। और सबसे बड़ी दिक्कत थी कि विक्रम पंडित के पास इस मिस्ट्री को हल करने के लिए सिर्फ चार दिन थे। और केस ऐसा जटिल कि उसे ईश्वर याद आ गए।