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कोटद्वार पर लिखना कोटद्वार के अलावा, उस दौर पर लिखना भी था, जब ज़िंदा लोगों से ही नहीं निर्जीवों से भी गहरा रिश्ता हुआ करता था।
जब सादगी थी,
सड़कों के किनारे पेड़ हुआ करते थे।
फल खरीदकर ही नहीं, पेड़ पर चोरी से चढ़ कर, पत्थर मारकर भी खा लिए जाते थे।
रोज काफी लोगों से मिलना होता था।
लोगों से उनके घर के अंदर घंटों बातें हुआ करती थी, फिर घर की चौखट, ड्योढ़ी पर भी आधे घंटे और बातें हो जाया करती थीं।
लड़कपन घर के बाहर ही बीतता था।
गर्मियों की छुट्टियाँ रिश्तेदारों के यहाँ कटती थीं, किसी हिल स्टेशन के होटल, रिसोर्ट में नहीं।
फोटो खिंचवाते वक्त चेहरे पर असली भाव ही कायम रखते थे।
न तो ज़िन्दगी में फ़िल्टर किया जाता था, और न ही फोटूओं में।
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